Friday, September 7, 2007

एक कविता....

मौन रहकर हम अपनी भावनाओं को कब तक छुपा सकते हैं। सच को हमे बताने से ज्यादा स्वीकार करना पडता है। कभी कभी तो लगता है जैसे हमें वरण के साथ साथ सहज जीने की भी इजाजत नही है।
कुछ शब्द

उथली पडी़ सारी
जमीन
भीग गयी है
बरसों बाद
फिर से।
केले के
फूलों की तरुणाई
कई सालों
के बाद
इतनी रुमानी है।
पता नही है
कि यह जादू
बारिश का है
या
मिटने से पहले
जी लेने की
जिजीविषा है।

4 comments:

renu ahuja said...

बात ये नहीं कि ज़मीन भीगी बरसॊं बाद,

बात ये नहीं कि शब्दों ने श्रंगार किया बरसों बाद,

बात ये है कि बरसों बाद घटा छाई

भीगी भावनांए छोड़ अलस,
ले रहीं हैं अंगड़ाई !!!

यूं ही नेट सर्फ़िंग आपके ब्लाग तक खींच लाई....और आपकी पहली ही रचना पढ कर आपकी योग्यता को सरहाने का दिल किया सो कमेंट तो आना ही था... !
सुंदर लेखन के लिए बधाई और ब्लाग जगत में स्वागत भी !
-रेणू

कुमार आलोक said...

वाह अभी तक हम सिर्फ़ इतना ही जानते थे कि आप अच्छी लेखिका है , लेकिन आपकी कविता पढकर ऐसा लगा कि आप श्रन्गार रस के कवित्व में बहुत आगे तक जा सकती है.
बहुत सुंदर प्रयास है , आशा है आगे भी यह कोशिश ज़ारी रहेगी.

आपका
कुमार आलोक , डीडी न्युज , दिल्ली
अवसर मिले तो यहां भी कभी देख लेंगी
http:/confusehai.blogspot.com

36solutions said...

Good

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

bhavpurn kavita. narayan narayan